उच्च शिक्षा की परम्परा और प्रयोग

गिरीश्वर मिश्र

गिरीश्वर मिश्रभारत में उच्च शिक्षा का बड़ा समृद्ध प्राचीन इतिहास है जहां नालंदा, विक्रमशिला, ओदंतपुरी और तक्षशिला आदि कई विश्वस्तरीय विश्वविद्यालयों की शृंखला थी, जहां अनेक विषयों का अध्यापन और अनुसंधान किया जाता था। ये सभी संस्थान समाज द्वारा पोषित किंतु व्यवस्था की दृष्टि से स्वायत्त थे। यहां के प्राध्यापक अपने विषयों के प्रामाणिक विद्वान थे और उनकी उपलब्ध कृतियां उनकी प्रतिभा और बुद्धि का कायल बनाती हैं। वैदिक ज्ञान परम्परा से जो धारा प्रवाहित हुई वह काल क्रम में ज्ञान की साधना को दिशा देती रही। इसका प्रमाण ज्ञान का प्रतिमान स्वरूप अष्टाध्यायी, योगसूत्र, नाट्यशास्त्र, चरक संहिता, अर्थशास्त्र, कामसूत्र और सूर्य सिद्धांत आदि अनेकानेक ग्रंथों में उपलब्ध होता है। दर्शन, धर्मशास्त्र, गणित, धातु-विद्या, साहित्य और कला आदि के क्षेत्रों में प्रचुर सामग्री आज भी उपलब्ध है। यह निश्चित है कि अध्ययन का क्षेत्र अत्यंत व्यापक था और वह कोरा सैद्धांतिक न होकर जीवन से जुड़ा होता था। वह शिक्षा विद्यार्थी को व्यवसायों के लिए तैयार करती थी। ज्ञान की यह परम्परा विकसित होती रही, उन पर चर्चा, खंडन–मंडन और टीका-टिप्पणी का भी अवसर बना रहा। यदि ज्ञान की शास्त्रीयता बहुलतामूलक थी तो बहुज्ञता शास्त्र जानने वाली की प्रवीणता या दक्षता की कसौटी थी। भर्तृहरि के शब्दों में ‘सिर्फ अपनी ही ज्ञान-परम्परा का ज्ञान अपर्याप्त होता है’। विचारों और सिद्धांतों में पर्याप्त विविधता थी और ज्ञान की प्रामाणिकता उसके प्रयोग से जांची-परखी जाती रही। कुशलता और दक्षता को बढ़ावा दिया जाना प्रमुख सरोकार था। ज्ञान-विज्ञान के अर्जन को अवलोकन तथा तर्क की सहायता से आगे बढ़ाने का प्रयास ज्ञान की यात्रा की मुख्य विशेषता के रूप में उभरती है। सिद्धांतों को यथार्थ की ओर उन्मुख एक आलोचक दृष्टि द्वारा सतत प्रमाणित किया जाता रहा। इस पूरी प्रक्रिया का उद्देश्य जीवन के क्लेशों से पार पाना था। विद्यार्जन का कार्य सभी तरह की समस्याओं का समाधान करने वाले उपाय के रूप में स्थापित हुआ। मनुष्य का सर्वतोमुखी विकास इस शिक्षा का उद्देश्य था। शिक्षा मूल्य-सृजनका माध्यम थी। भारतीय परंपरा में शिक्षा को सामाजिक जीवन से जोड़े रखने को प्राथमिकता दी गई थी। शिक्षा और दीक्षा के द्वारा शास्त्र तथा लोक दोनों को पुष्ट किया जाता रहा और दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते रहे । शिक्षा की चर्या कैसे हो इस पर भी वैदिक काल से ही चिंतन-मनन होता रहा। ज्ञान को आत्मसात् करना और दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाना ही आचार्य और उपाध्याय का मुख्य कार्य होता था। अध्यापक का प्रवचन यदि ‘संधान’ था तो गुरु (पूर्वपक्ष) तथा शिष्य (उत्तरपक्ष) के बीच विद्याविषयक सम्बन्ध को ‘संधि’ कहा गया। ज्ञान की सामाजिक भूमिका थी तो ज्ञानसृजन भी समाज की आशा-आकांक्षा के प्रति संवेदनशील था। अपने व्यापक अर्थ में दोनों का संचालन ‘धर्म’ की परिधि में करने पर जोर दिया गया। इसे जीवन-विस्तार और समाज में स्थापित किया जाता रहा । विभिन्न शास्त्रों, विद्याओं और कला-कौशलों का विस्तार आज भी विभिन्न ग्रंथों या टेक्स्ट में उपलब्ध है जो यह बताने के लिए पर्याप्त आधार प्रदान करता है कि भौतिक जगत, सामाजिक व्यवहार और आध्यात्मिक अनुभव सभी दृष्टियों से ज्ञान के उद्घाटन का प्रयास मुख्य है । इन सबके केंद्र में मनुष्य समेत समस्त प्राणिजगत के साथ प्रकृति की रक्षा और संवर्धन का प्रयास है । इस सोच में शिक्षा मानव पूंजी में स्थायी निवेश है जिसका उद्देश्य दायित्वपूर्ण मनुष्य निर्मित करना है।यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि आधुनिक भारत में उच्च शिक्षा का वर्तमान रूप अंग्रेज़ी औपनिवेशिक काल की देन है जिसे योजनाबद्ध रूप में युक्तिपूर्वक प्रस्तुत और स्थापित किया गया । यह शिक्षा को देश की ज्ञान-परम्परा से काट कर और उसे अप्रासंगिक बना कर लागू की गई। अपरिचित विदेशी भाषा के माध्यम से पढ़ाई की व्यवस्था ने शिक्षा तक पहुँच को न केवल सीमित कर दिया बल्कि अंग्रेज़ी तहजीब और तौर तरीकों को मानक के रूप में स्थापित किया। संस्कृति और ज्ञान का नया आदर्श अनिवार्य रूप से श्रेष्ठ बना कर प्रचारित किया गया। उस अंग्रेजी परस्त भारत से परे वाला शेष भारत बड़ी आसानी से हाशिए पर पहुंचा दिया गया। अपने सामान्य रूप में यह शिक्षा ज्ञान के निर्माण और प्रसार की जगह सरकारी काम-काज के लिए जरूरी मुलाजिमों को तैयार करने लायक पढ़ाई पर ही केंद्रित रही। इस तरह वह एक तरह की बाबूगिरी को तरजीह देने वाली ज्ञानप्रणाली थी और उसका विस्तार उसी रूप में किया जाता रहा । इस शिक्षा में विद्यार्थी का एकांगी विकास हो रहा था। उसकी विषयवस्तु बाहर से उधार ली गई थी और शिक्षा के नाम पर उसी के अनुकरण तथा पुनरुत्पादन का काम जोर-शोर से शुरू हुआ जो बाद में भी चलता रहा। पश्चिम को ही मानक माना गया और उसकी मान्यता पाने पर ज़ोर दिया जाता रहा। ऐसे में नवोन्मेष, सृजनात्मक पहल, मौलिकता और विचार-स्वातंत्र्य जैसे मानदंडों में देश पिछड़ता गया। शिक्षा की प्रक्रिया विशेषतया अध्यापन और परीक्षा के ढाँचा का प्रावधान इसी के अनुरूप किया गया।ज्ञान-सृजन और प्रसार की दृष्टि से अंग्रेजों द्वारा आरम्भ की गई और उनके वर्चस्व के प्रभाव में स्वतंत्र भारत में भी क़ायम रही । यह उच्च शिक्षा ज्ञान के क्षेत्र में भारत को सदा के लिए दोयम बनाये रखने का पक्का नुस्खा बन गया। यह मॉडल ज्ञान की प्रक्रिया का भारतीय आदर्श बन गया और अभी तक जारी है। लगातार अभ्यास के कारण दूसरे विकल्पों के प्रति हम उदासीन और तटस्थ होते गए। ज्ञान, कौशल और तकनीक के क्षेत्रों में परजीवी हो जाना स्वावलम्बन और विकास के लक्ष्य के विरुद्ध जाता है। उद्यमिता और सामाजिक प्रासंगिकता की दृष्टि से भी यह मॉडल अधिक उपयोगी नहीं रहा। हम स्थानीय प्रश्नों को भी दरकिनार रखे और वैश्विक संदर्भ के प्रति भी आवश्यकतानुसार संवेदनशील नहीं हो सके। आज जब उदारीकरण, वैश्वीकरण और अंतरराष्ट्रीयकरण का दौर आ चुका है तथा ‘डिजिटल’ और ‘स्मार्ट’ विश्वविद्यालयों की बात हो रही है हमारे देश के अनेक विश्वविद्यालय सोच–विचार और प्रणाली की दृष्टि से स्तब्ध और किंकर्तव्यविमूढ़ बने हुए हैं। भारतीय समाज का बड़ा हिस्सा इस अर्थ में शिक्षा की दृष्टि से निरपेक्ष रहता है कि वह जो है उसके साथ अपना समायोजन बैठाने लगता है और शिक्षा यथास्थितिवाद का शिकार हो जाती है। सैद्धांतिक रूप से विश्वविद्यालय स्वायत्त संस्था होते हैं इसलिए सब अपने ढंग से कार्य करते हैं जिससे अच्छे बुरे हर तरह की पहल की छूट होती है। राज्य सरकार की अपनी मनमानी चलती है। वे अपने विवेक से काम करती है। उदाहरण के लिए कई प्रदेशों की सरकारें पूरे प्रदेश के विश्वविद्यालयों के लिए एक पाठ्यक्रम लागू करती हैं जिससे सर्जनात्मकता और विविधता को धक्का लगता है। आज उच्च शिक्षा की दृष्टि से देश संक्रमण की स्थिति में है। जिसके पास संसाधन हैं वह अपने बच्चों को जल्दी से जल्दी विदेश पढ़ने को भेजने की जुगत में है। देशी सरकारी संस्थान व्यवस्थागत कठिनाइयों से ग्रस्त हो रहे हैं। उनकी संख्या कम है और जो हैं वे संसाधनों के अभाव से जूझ रहे हैं। दूसरी ओर भारत में गैरसरकारी क्षेत्र में बड़ी संख्या में बेहद महंगे निजी शिक्षा संस्थान तेजी से खड़े हो रहे हैं जो कई गुना फीस ले रहे हैं। वे शिक्षा की एक भिन्न संस्कृति विकसित कर रहे हैं। ज्यादातर सरकारी संस्थान संसाधनों के अभाव और व्यवस्था की खामियों से जूझ रहे हैं। कुलपतियों और अध्यापकों की नियुक्ति न होने से कई विश्वविद्यालयों में शिक्षा का माहौल बिगड़ रहा है। साथ ही विभिन्न कारणों से कई विश्वविद्यालयों में कुलपतियों को हटाना पड़ा और शैक्षिक परिवेश खराब हुआ। बढ़ते सरकारी हस्तक्षेप के कारण भी अनेक संस्थाओं का स्वाभाविक विकास नहीं हो पा रहा है। शोध की गुणवत्ता में ह्रास और शोध प्रकाशनों में धांधली घातक हो रही है।शिक्षा संस्थानों के विकास के लिए स्वायत्तता अत्यंत आवश्यक है। उच्च शिक्षा का आम माहौल युवा भारत के लिए चिंताजनक हो रहा है। नई शिक्षा नीति व्यवस्था, प्रक्रिया, विषयवस्तु, सांस्कृतिक परिष्कार तथा शिक्षा के माध्यम आदि को लेकर अनेक प्रस्ताव लेकर जरूर उपस्थित हुई परंतु उसके कार्यान्वयन में अनेक बाधाएं हैं। भारतीय ज्ञान परम्परा और मातृभाषा में अध्ययन-अध्यापन को बढ़ावा देने के कार्य में कुछ प्रगति हुई है परंतु नीति के आने के चार साल बाद भी बहुत से सैद्धांतिक, व्यावहारिक और नीतिगत प्रश्न अभी भी अनुत्तरित हैं। इनको यथाशीघ्र सुलझाना होगा। गुणवत्ता, मौलिकता और प्रासंगिकता के अभाव में विश्व पटल पर भारतीय शिक्षा की प्रभावकारी उपस्थिति नहीं हो सकेगी। यदि शिक्षा के गिने-चुने कुछ उज्ज्वल द्वीपों (जैसे–आईआईटी, आईआईएम और भारतीय विज्ञान संस्थान) को छोड़ दें तो ज्यादातर संस्थान निराश करने वाले होते जा रहे हैं। उच्च शिक्षा के प्रति सरकार का कामचलाऊ रवैया विकसित भारत के राष्ट्रीय लक्ष्य को पाने में बाधक है। उच्च शिक्षा में उत्कृष्टता का कोई विकल्प नहीं होता है। इसलिए शिक्षा के लिए गम्भीर प्रयास करने ही होंगे। (लेखक,महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)

न्यूज़ एजेंसी/ मुकुंद


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