-डॉ. मयंक चतुर्वेदी
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के ‘मियां मुस्लिम’ संबंधी बयान पर इन दिनों एक विशेष वर्ग की ओर से जमकर राजनीति हो रही है। जमीयत उलेमा-ए-हिंद एवं वे तमाम संगठन इस वर्ग विशेष के अगुआ हैं जो मुस्लिम हितों की गारंटी ही नहीं लेते बल्कि सरकार एवं अन्य समाजों के बीच अपनी आवाज यह कहकर बुलंद करते हैं कि भारत में मुसलमानों के साथ नाइंसाफी हो रही है। उनका यह आरोप आम है कि हुकूमत उन पर बहुत जुल्म कर रही है। अब यह अलग बात है कि केंद्र की मोदी सरकार या इससे पहले की कांग्रेस या अन्य सरकारें, जिनके कार्यकाल में लगातार अल्पसंख्यकों में सबसे अधिक लाभ मुसलमानों को दिया गया और उन्होंने बहुत सफलता से उसे उठाया भी है। फिर भी इस वर्ग के अधिकांश आम लोगों को हुकूमत से शिकायत है।
दूसरी ओर राज्यों के स्तर पर भी अब तक जितनी सरकारें हुईं, जिसमें असम भी शामिल है और आज के वहां जो मुख्यमंत्री हैं, वे हिमंत बिस्वा सरमा भी। उन सभी प्रदेशों और इनके मुख्यमंत्रियों ने शासन स्तर पर योजनाओं के लाभ और संविधानिक नियमों के अनुसार अल्पसंख्यकों को मिलने वाले हितों में कोई कमी मुसलमानों के लिए कभी नहीं रखी है, जिसमें आज भारत सरकार एवं राज्य सरकार के पास मुसलमानों को मिले लाभ के आंकड़े भी मौजूद हैं। इसके बाद भी भारत की ये इस्लामिक संस्था ‘जमीयत उलेमा-ए-हिंद’ और इन जैसी अन्य इस्लामी संस्थाएं हैं कि इन्हें हर उस सरकार से शिकायत है, विशेषकर उससे जो भारतीय जनता पार्टी का प्रतिनिधित्व करती हैं।
कहना होगा कि हिमंत बिस्वा सरमा के इस ‘मियां मुस्लिम’ बयान को लेकर व्यर्थ ही ‘जमीयत उलेमा-ए-हिंद’ टारगेट कर रही है, जबकि वह जानती है कि मुख्यमंत्री विस्वा सरमा का ये वक्तव्य भारत के मुस्लिम नागरिकों के लिए नहीं है, जो कहा जा रहा है वह बांग्लादेश के घुसपैठियों के लिए है। फिर भी उसे इस शब्द के बोलने पर आपत्ति है। सोचने वाली बात है कि जमीयत को ये इस हद तक बुरा लग गया कि उसने मुख्य न्यायधीश डीवाई चंद्रचूड़ से मामले का संज्ञान लेकर कार्रवाई करने तक का आग्रह कर डाला ! आश्चर्य यह भी है कि जमीयत के अध्यक्ष मौलाना महमूद मदनी सीजेआई तक ही नहीं रुकते। वह गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा को पत्र लिखकर असम के मुख्यमंत्री पर तुरंत कार्रवाई की मांग कर रहे हैं। जमीयत चीफ ने मुख्यमंत्री हिमंत के बयान को संपूर्ण भारत के मुसलमानों से भी जोड़ दिया है। कह रहे हैं, ‘असम के मुख्यमंत्री का दिया यह बयान संपूर्ण भारत के मुसलमानों को एक विशेष नजरिए से देखता है। भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों को मियां बुला कर सीएम ने उन्हें दूसरे दर्जे के नागरिक का दर्जा देने की कोशिश की है।’
अब जरा मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा का पक्ष भी जान लेना चाहिए; असम कैबिनेट ने कुछ समय पहले ही राज्य की स्वदेशी मुस्लिम आबादी के सामाजिक- आर्थिक सर्वेक्षण को मंजूरी दी थी। साल 2022 में पांच मुस्लिम वर्गों की पहचान करके उन्हें स्वदेशी असमिया मुसलमानों के रूप में मान्यता दी गई। ये सभी असमिया भाषा बोलने वाले लोग हैं। किंतु दूसरा एक और समुदाय है, जिसे असम में मियां मुसलमान कहा गया है और ये लोग बांग्लाभाषी हैं और उनमें जो संख्या बांग्लादेश से आकर यहां बस गई है, उस जनसंख्या का अनुपात 90 प्रतिशत से अधिक बताया जाता है। इसलिए इस मुस्लिम आबादी को लेकर अक्सर यहां विवाद होता है। यहां हिमंत बिस्वा सरकार एक फिल्टर लगाने की बात करती है ताकि बाहरी मुस्लिमों की पहचान आसान हो और उन्हें बाहर किया जा सके।
हिमंत बिस्वा कहते हैं, ‘मैं असम को ‘मियां भूमि’ नहीं बनने दूंगा। असम के जनसांख्यिकी को परिवर्तित करने और स्थानीय लोगों को अल्पसंख्यक में लाने के लिए एक राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक अतिक्रमण चल रहा है। यह केवल मैं नहीं कह रहा, बल्कि स्वर्गीय गोपीनाथ बोरदोलोई, विष्णुराम मेधी और माननीय सुप्रीम कोर्ट का भी कहना है।’ यहां समझनेवाली बात यह भी है कि असम को छोड़ कर सभी उत्तर-पूर्वी राज्यों में यह कानून है कि गैर-स्थानीय लोग भूमि का अधिग्रहण नहीं कर सकते। चूंकि असम में ऐसा कानून नहीं है, इसलिए बांग्लादेशी घुसपैठियों ने बसने के लिए विकल्प के तौर पर इस राज्य को चुना है, जिससे उन्हें भूमि व अन्य संबंधित अधिकार जैसे-सरकारी सहायता, रोजगार, चिकित्सा-लाभ आदि प्राप्त करने में आसान मदद मिलती है।
वस्तुत: यही कारण है कि आज यहां बांग्लादेशी घुसपैठियों ने राज्य की जनसांख्यिकीय संरचना को पूरी तरह से बदल दिया है। 1901 में राज्य का एक भी जिला मुस्लिम बहुल नहीं था। किंतु हम देखते हैं कि वर्ष 2001 से 2011 के बीच यहां भारी बदलाव देखने में आया और राज्य के नौ में से छह जिले मुस्लिम बहुल हो गए। इन आंकड़ों पर भी गौर करें कि वर्ष 1971 में जो असम राज्य में हिंदुओं की आबादी 72.5 प्रतिशत थी, वह समय के साथ बढ़ने के स्थान पर घटती चली गई । 2001 में घटकर 64.9 और 2011 में 61.46 प्रतिशत रह गई। इसके उलट मुसलमान हैं कि उनकी जनसंख्या में बेतहाशा वृद्धि होती जा रही है। 1971 में मुस्लिम आबादी 24.6 प्रतिशत थी, जो 2001 में बढ़कर 30.9 और 2011 में 34.2 प्रतिशत हो गई। यानी 10 वर्ष में मुस्लिम आबादी 40 प्रतिशत बढ़ गई!
आज मुस्लिमों की असम में बढ़ती जनसंख्या के लिए तीन अनुमान हमारे सामने हैं। एक– हितेश्वर सैकिया जो वर्ष 1992 में तत्कालीन मुख्यमंत्री असम थे, उनके अनुसार बांग्लादेशी घुसपैठियों की संख्या 32 लाख थी। दो- 2004 में कांग्रेस की मनमोहन-संप्रग सरकार ने इस बात को संसद में स्वीकारा था कि घुसपैठियों की संख्या 50 लाख तक हो गई है। तीन- उसके बाद आई मोदी सरकार ने वर्ष 2016 में इन घुसपैठियों की जनसंख्या 80 लाख से ऊपर होना बताया था। जो 2011 में राज्य की कुल आबादी 3.3 करोड़ का 25 प्रतिशत हैं। अभी हाल ही में किए गए तीन अलग शोधों में यह सामने आ चुका है कि हिन्दू असम में वर्ष 2040 से 2051 के बीच मुसलमानों की तुलना में अल्पसंख्यक हो जाएंगे। यहां दिक्कत यह है कि इस मुस्लिम बहुल असम में बांग्लादेशी मूल के लोग सबसे अधिक होंगे।
कहना होगा कि यह मुस्लिम जनसंख्या का आंकड़ा अचानक नहीं है। यह उनकी जन्म दर के संख्यात्मक विस्फोट का परिणाम है। बांग्लादेश से घुसपैठ नहीं रुक पाने के कारण से ही यह बार-बार कहा जा रहा है कि असम का 20 वर्ष में मुस्लिमीकरण हो जाएगा। अभी नागरिकों के राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) को लेकर भी सभी ने देखा कि कैसे इसे विवाद का विषय इस्लामवादियों ने पूरे देश में बना दिया था। इसके माध्यम से पूरे विश्व को ये संदेश देने की कोशिश की गई कि मोदी सरकार असम में मुसलमानों को प्रताड़ित कर रही है। यहां पूरे असम को आग के हवाले करने में कोई हिचक इन इस्लामवादियों में नहीं थी। जबकि इससे जुड़ी हकीकत यह है कि इसे 1951 में असम के सभी निवासियों के लिए 2014 में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर लागू किया गया था। उद्देश्य भी साफ था कि 25 मार्च, 1971 के पहले से जो राज्य में रह रहे हैं, उन लोगों या उनके पूर्वजों की पहचान की जाएगी, और उस आधार पर जिन्हें 1951 का नागरिक पाया जाएगा, वे अद्यतन एनआरसी में शामिल हो जाऐंगे । पूरा एनआरसी सर्वोच्च न्यायालय की देखरेख में किया गया था, किंतु इसके बाद भी व्यापक तौर पर एक बड़ी संख्या जो बांग्लादेशी घुसपैठियों की है, अपना नाम इसमें डलवाने में कामयाब हो गए। यहां फर्जी पहचान के आधार पर कई बांग्लादेशियों ने भूमि-भवन, सरकारी लाभ भी प्राप्त कर लिए हैं । यही कारण है कि भाषायी तौर पर इनकी असली पहचान कर इन्हें राज्य से बाहर करना आज बहुत कठिन हो गया है ।
इस सब के बीच हमें यह जरूर याद रखना चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 2015 में उपमन्यु हजारिका आयोग गठित किया गया था, इस आयोग ने बांग्लादेश के साथ सटी सीमा की स्थिति पर अदालत को अपनी अहम चार रिपोर्ट सौंपी थीं। इसमें घुसपैठ रोकने का एकमात्र उपाय यही बताया गया था कि असम में कानून बनाकर भूमि, रोजगार, व्यापार आदि सिर्फ उनके लिए आरक्षित किया जाए, जिनके नाम या जिनके पूर्वजों के नाम 1951 के एनआरसी में मौजूद हैं, वे असम के निवासी माने जाएं और अन्य को इससे बाहर कर दिया जाए। इसके बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय ने गुवाहाटी उच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश को प्रमुख बनाते हुए एक समिति बनाई थी, उसने भी 2020 में वही सुझाव दिए जोकि पूर्व में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित कमेटी दे चुकी थी। इसने अपनी रिपोर्ट में कहा कि भूमि, रोजगार, व्यापार के अधिकारों की रक्षा करने वाला कानून केवल उनके लिए हो, जिनके नाम 1951 एनआरसी में हैं।
अब इस पूरे मामले की समीक्षा के बाद आप वर्तमान मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा के कार्यों को देखिए; वह क्या कर रहे हैं? वह बता रहे हैं कि असम में ‘मियां मुसलमानों’ की घुसपैठ के कारण ही मूल असमियां लोगों के अस्तित्व पर संकट आया है। यदि ठोस उपाय नहीं किए गए तो 2040 तक असम की स्थानीय आबादी अल्पसंख्यक हो जाएगी। इसलिए वे (मुख्यमंत्री) उन सारे प्रयासों को कर रहे हैं, जिनसे स्थानीय लोगों का संरक्षण हो सके। ऐसे में जमीयत उलेमा-ए-हिंद का इस ‘मियां मुसलमान’ शब्द को बड़ा मुद्दा बनाने का औचित्य समझ नहीं आता है। वास्तव में मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा असम में आज वही कर रहे हैं जो इस राज्य के अस्तित्व एवं यहां के (मूल) स्थानीय निवासियों के संरक्षण के लिए अति आवश्यक है और इस राज्य का मुख्यमंत्री होने के नाते उन्हें करना चाहिए ।
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न्यूज़ एजेंसी/ डॉ. मयंक चतुर्वेदी
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