मनोज कुमार मिश्र
कचरा अब केवल शहरों की समस्या नहीं है। शहरीकरण और आधुनिकीकरण की होड़ में गांव-देहात भी कचरे की समस्या को झेलने को मजबूर हैं। पर्यावरण के नजरिये से घरों के निकलने वाले कूड़ों से अधिक प्लास्टिक कचरा, मेडिकल कचरा, इलेक्ट्रॉनिक कचरा इत्यादि ज्यादा नुकसानदेह हैं। एक अनुमान के मुताबिक देशभर से हर रोज निकलने वाले करीब तीन लाख मीट्रिक टन कूड़े में से तमाम नए तरह के कूड़े पैदा होने के चलते केवल एक चौथाई कूड़े का निबटान आसानी से हो पा रहा है। हिमालय की ऊंची चोटियों से लेकर पवित्र केदारनाथ धाम भी कचरा और खासकर प्लास्टिक कचरे से तबाह है। खुद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को अपने मन की बात में इसके लिए अपील करनी पड़ी।
दिल्ली, मुंबई या दूसरे शहरों में कचरों के पहाड़ (लैंडफिल) से लोगों को खतरा है ही, उसे खत्म करने के कई प्रयासों के दौरान निकलने वाले गैस से बड़ी संख्या में लोग बीमार हो रहे हैं। जिस तरह आए दिन दिल्ली के गाजीपुर, भलस्वा और ओखला या मुंबई के मुलुंड के कूड़े के पहाड़ों में आग लगती रहती है वैसी ही आग दिल्ली, मुंबई से छोटे शहर देहरादून आदि के कूड़े घर में लगने लगी है। प्लास्टिक और दूसरे कचरों से बड़ी संख्या में समुद्री जीव लगातार मर रहे हैं। शहरों और देहातों में गाय और पालतू जानवरों की मौत का एक बड़ा कारण प्लास्टिक और मेडिकल कचरा है। उत्तराखंड के जंगलों में हाथियों के लीद (शौच) में प्लास्टिक कचरा मिलने के बाद तो वन्यजीवों पर संकट के बादल छाने लगे हैं।
घरों से निकलने वाले कूड़े का प्रबंधन एक समस्या है ही क्योंकि माना जाता है कि अगर अलग-अलग कूड़े की छंटाई शुरुआत में घरों से नहीं हुई तो बाद में उन्हें अलग करना कठिन हो जाता है। बड़ी समस्या दूसरे प्रकार के कूड़े से है। अब इमारतों को तोड़ने या पुनर्निर्माण कार्य के दौरान निकलने वाले मलबे को सड़क बनाने में उपयोग किया जाने लगा है। प्लास्टिक के पुराने बोतलों आदि को भी री-साईकिल करके दूसरी चीजें बनाई जाने लगी हैं। बड़ी समस्या मेडिकल कूड़े की है। एक अनुमान के मुताबिक कोरोना महामारी के दौरान हर रोज 710 टन मेडिकल कचरा निकल रहा था। मेडिकल कचरों का सही प्रबंधन न करने पर तो उनमें आपस में ही रासायनिक प्रतिक्रिया होने से खतरनाक गैस निकलने लगती है। इसी तरह इलेक्ट्रॉनिक कचरा प्रबंधन बड़ी समस्या बन चुका है। अब मोबाइल फोन, टीवी, फ्रिज, एसी, कूलर, गीजर, हीटर इत्यादि सामान हर घर तक पहुंच गया है। उनके बेकार होने पर उन पुराने सामानों का उपयोग एक हद तक ही होता है। बाद में तो वह कूड़ा ही बन जाता है। इस कूड़े की मात्रा भी लगातार बढ़ रही है।
समस्या इसलिए ज्यादा विकराल होती जा रही है कि हम दुनिया के जिन अमीर देशों की नकल करके आधुनिकता की अंधी दौड़ में फंसे हुए हैं, वहां भी कचरा प्रबंधन समस्या है लेकिन वहां अपने देश जैसी न तो भारी आबादी है और न कम संसाधन। कुछ दशक पहले तक कूड़ा प्रबंधन शहरों की समस्या थी। गांव में गिनती के पक्के मकान थे। मिट्टी या बांस-फूस के मकानों को तोड़ कर वापस कुछ और मिट्टी या बांस-फूस से नया मकान बनाया जाता था। घरों से निकलने वाला कूड़ा खाद बन जाता था क्योंकि उसमें मिलावटी चीजें नहीं या कम से कम होती थीं। गांव में प्लास्टिक के थैलों और बोतलों आदि का उपयोग तो कुछ दशकों से शुरू हुआ है। लोग सामान लाने-ले-जाने के लिए अपने थैलों आदि का उपयोग करते थे। गांव में इलेक्ट्रॉनिक सामान गिनती के थे। अब गांव में भी ज्यादातर घर पक्के बन गए। इलेक्ट्रॉनिक और मेडिकल कचरा शहरों की तरह गांव में भी इकट्ठा होने लगा है। शहरीकरण की बढ़ती रफ्तार ने देश के गांवों की आबादी को भी वही सारे रोग दे दिए हैं, जिसे झेलने के लिए शहरों के लोग पहले अभिशप्त थे।
अब कचरा प्रबंधन केवल महानगरों या शहरों की समस्या नहीं है, यह देश की बड़ी समस्या बन गया है। बिना कूड़ा प्रबंधन के प्रदूषण से निजात नहीं मिलने वाला है। यह साबित हो चुका है कि प्रदूषण का एक बड़ा कारण कूड़ा-कचरा है। दुनिया के अमीर देश भी इस समस्या को झेल रहे हैं और उससे निजात पाने के विभिन्न उपाय खोज चुके हैं और हर रोज नए उपाय मिलने की उम्मीद दिखाते हैं। उनका कूड़ा प्रबंधन बेहतर होने से उन देशों में प्रदूषण के मुख्य कारणों में कचरा या कूड़ा नहीं है। उनका खानपान और रहन-सहन उन्हें बीमार बना रहा है। भारत जैसे बड़ी आबादी वाले विकासशील देश में प्रदूषण के बड़े कारणों में एक मानव के उपयोग में आने वाले विभिन्न तरीके के कचरे हैं। दुर्भाग्य से इस समस्या पर हम पूरी तरह से निजात नहीं पा सके हैं और अमीर देशों की नकल में जीवन शैली में बदलाव करके प्रकृति का सही उपयोग के बजाए उसका दोहन करके अपने को ज्यादा बीमार कर रहे हैं।
उत्पादन बढ़ाने की होड़ से अन्न के अवशेष भी जहर बनते जा रहे हैं। पहले अन्न के जिन अवशेषों को प्राथमिकता से घरेलू जानवरों और मवेशियों को खिलाकर उन्हें ताकतवर और ज्यादा उपयोगी बनाते थे। अब वे उन्हीं को खाकर बीमार हो रहे हैं। गाय सबसे बड़ी संख्या में प्लास्टिक के पैकेट निगलने और प्रदूषित अन्न अवशेष खाकर मर रही हैं। इन कचरों का सही निबटारा न होने से गांव से लेकर शहरों तक के नदी-नाले कचरों की ढेर में तब्दील होते जा रहे हैं। इससे पानी का संकट तो भयावह होता ही जा रहा है, हर शहर में थोड़ी बरसात से ही बाढ़ आने लगी है। हालात ऐसे बनते जा रहे हैं कि गांव से लेकर शहरों और दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों में आपातकाल जैसे हालात मानकर कचरा प्रबंध प्राथमिकता पर करना जरूरी हो गया है।
(लेखक, न्यूज़ एजेंसीके कार्यकारी संपादक हैं।)
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न्यूज़ एजेंसी/ संजीव पाश
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