लोकतंत्र और इस्लामी मूल्यों के खिलाफ है वैश्विक खिलाफत की अवधारणा

गौतम चौधरी

गौतम चौधरी

वैश्विक खिलाफत की काल्पनिक अवधारणा उसी प्रकार गैर वाजिब है, जैसे पुरातनपंथी हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा। यह दोनों अवधारणा काल्पनिक है और आधुनिक लोकतांत्रिक विश्व में इसका कोई स्थान नहीं है। दरअसल, आज इस बात की चर्चा इसलिए जरूरी है कि दुनिया के कुछ इस्लामिक चरमपंथियों ने एक बार फिर वैश्विक खिलाफत की बात प्रारंभ की है। विगत कुछ वर्षों में भारत सहित दक्षिण एशिया के कई देशों में इस विचार से प्रेरित युवकों को असामाजिक व गैर राष्ट्रवादी गतिविधियों में संलिप्त देखा गया। हाल के वर्षों में हिज्ब उत-तहरीर की गतिविधियों को लेकर भारत में चिंता बढ़ी है।

पहले तो हमें हिज्ब उत-तहरीर को समझना होगा। यह एक अंतरराष्ट्रीय इस्लामिक संगठन है, जिसका उद्देश्य इस्लामी खिलाफत को पुनर्स्थापित करना है। इसका नाम अरबी में ‘‘हिज्ब-उत-तहरीर’’ है, जिसका अर्थ है- ‘‘मुक्ति की पार्टी।’’ वर्ष 1953 में एक फिलिस्तीनी इस्लामिक चरमपंथी उकीउद्दीन नबहानी ने जेरूसलम में इसकी स्थापना की थी। हिज्ब-उत-तहरीर का दावा है कि वह राजनीतिक, बौद्धिक और वैचारिक तरीकों से काम करता है और न्यूज़ एजेंसी में कोई विश्वास नहीं करता लेकिन इसके कार्यकर्ता दुनिया के लगभग 50 देशों में न्यूज़ एजेंसी गतिविधियों में संलिप्त पाए गए हैं। यहां तक कि कई इस्लामिक देशों में भी यह संगठन वहां की सत्ता के लिए चुनौती बना हुआ है। संगठन का मानना है कि मुसलमानों को एक खलीफा के नेतृत्व में एकजुट होना चाहिए, जो शरियत कानून के अनुसार शासन करे। इसका मुख्य उद्देश्य एक वैश्विक इस्लामी खिलाफत की स्थापना है, जो मुसलमानों की राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन को इस्लामी सिद्धांतों के अनुसार नियंत्रित करे।

वस्तुतः इस संगठन का दावा और हकीकत दोनों एक-दूसरे के विपरीत हैं। यूरोपियन काउंसिल ऑन फॉरेन रिलेशंस के मुताबिक, ये संगठन गैर-सैन्य तरीकों से खिलाफत की पुनर्स्थापना पर काम करता है। इसलिए कई देश, इस संगठन पर प्रतिबंध लगा चुके हैं। हिज्ब-उत-तहरीर पर प्रतिबंध लगाने वाले देशों में बांग्लादेश और चीन के अलावा जर्मनी, रूस, इंडोनेशिया, लेबनान, यमन, तुर्की और संयुक्‍त अरब अमीरात शामिल हैं। दुनिया के अन्य कई देश इस संगठन की निगरानी कर रहे हैं क्योंकि वहां की राजनीतिक व्यवस्था के लिए भी यह चुनौती पैदा करने लगा है। इसके बावजूद, यह संगठन दुनिया के 50 से अधिक देशों में सक्रिय है। 10 लाख से अधिक इसके सक्रिय सदस्यों की संख्या बतायी जाती है। हिज्ब-उत-तहरीर का भारत में बहुत व्यापक आधार नहीं है लेकिन हाल के वर्षों में इसके प्रभाव और गतिविधियों पर ध्यान दिया गया है।

हिज्ब-उत-तहरीर का मुख्य उद्देश्य इस्लामिक खिलाफत स्थापित करना है, जो भारत के संविधान और धर्मनिरपेक्षता के मूल सिद्धांतों के विपरीत है। हिज्ब-उत-तहरीर ने भारत में बहुत अधिक खुले तौर पर गतिविधियां नहीं की हैं, लेकिन कुछ मीडिया रिपोर्ट और सुरक्षा एजेंसियों के अनुसार, यह गुप्त रूप से भारत में सक्रिय है। संगठन के सदस्यों पर भारत के विभिन्न हिस्सों में युवाओं को कट्टरपंथी बनाने और खिलाफत की विचारधारा का आरोप लगा है। भारत में सुरक्षा एजेंसियां इस संगठन पर नजर रखी है और इसके संभावित नेटवर्क को रोकने के प्रयास करती है। इस क्रम में भारत सरकार ने हाल ही में इस कट्टरपंथी समूह को प्रतिबंधित संगठन घोषित किया है। इसपर प्रतिबंध के मामले में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने कहा है कि हिज्ब-उत-तहरीर का लक्ष्य लोकतांत्रिक सरकार को जिहाद के माध्यम से हटाकर भारत सहित विश्व स्तर पर इस्लामिक देश और खिलाफत स्थापित करना है। मंत्रालय ने अपने आदेश में कहा है कि हिज्ब-उत-तहरीर भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था और आंतरिक सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा है।

सरकार द्वारा आधिकारिक तौर पर हिज्ब-उत-तहरीर को आतंकवादी संगठन के रूप में सूचीबद्ध करने के साथ, यह समझना महत्वपूर्ण है कि न केवल इसकी गतिविधियां भारतीय कानून के तहत अवैध हैं, बल्कि यह मूल इस्लामिक सिद्धांतों के खिलाफ भी है। इससे भारतीय मुस्लिम समुदाय के लिए दोहरी दुविधा पैदा होती है। भारत का संविधान धर्म और राज्य के मामलों के बीच स्पष्ट अंतर बनाए रखते हुए धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को सुनिश्चित करता है। यह अपने सभी नागरिकों के लिए लोकतंत्र, मतदान और मौलिक अधिकारों को सुनिश्चित करता है। हिज्ब-उत-तहरीर के सदस्यों की हरकतें, जिनमें लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में भागीदारी के खिलाफ प्रचार करना, संविधान को चुनौती देना और शरिया कानून द्वारा शासित वैकल्पिक राज्यों को बढ़ावा देना शामिल है, जो अंततोगत्वा देश के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को खतरे में डालेगा। लोकतंत्र के प्रति हिज्ब-उत-तहरीर का वैचारिक विरोध खुद को उन मूल सिद्धांतों के खिलाफ खड़ा करता है, जिन्होंने मुसलमानों सहित विभिन्न समुदायों को भारत में शांतिपूर्वक सहअस्तित्व की अनुमति दी है। संविधान विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देकर संगठन न केवल मुसलमानों और बहुसंख्यक समाज के बीच दरार पैदा करता है, बल्कि अलगाववादी रवैये को भी बढ़ावा देता है, जो इस्लाम के सामाजिक सामंजस्य सिद्धांत के खिलाफ है।

हिज्ब-उत-तहरीर की गतिविधियां इस्लामिक शिक्षाओं का भी खंडन करती है। इस्लामिक चिंतकों के अनुसार, इस्लाम एक आस्था के तौर पर अराजकता से बचने को महत्व देता है। इस्लामिक राजनीतिक विचार में एक प्रमुख सिद्धांत यह है कि किसी भी वैध इस्लामिक शासन को एक वैध प्रक्रिया के माध्यम से बदला जा सकता है, विशेष रूप से व्यापक सामुदायिक समर्थन वाले मुस्लिम शासक के नेतृत्व में ही यह संभव है। अराजकता के माध्यम से शासन बदला जाना इस्लामिक राजनीतिक सिद्धांत के खिलाफ है। इस्लाम के पवित्र ग्रंथ में इसके बारे में साफ चेतावनी दी गयी है। साफ तौर पर कहा गया है कि इस्लामी राज्य के लिए अनाधिकृत आह्वान के जरिए फूट को बढ़ावा देने के बजाए स्थापित प्राधिकरण के जरिए एकता और न्याय को बनाए रखना ही बेहतर है।

वास्तव में दुनियाभर के इस्लामी विद्वानों ने नेतृत्वहीन आन्दोलन के खिलाफ चेतावनी दी है जो अशांति भड़का कर व्यवस्था बदलने की कोशिश करते हैं। हिज्ब-उत-तहरीर की तरह ये आन्दोलन न केवल समुदाय के हितों को नुकसान पहुंचाते हैं बल्कि सामाजिक शांति और सद्भाव प्राप्त करने के व्यापक इस्लामिक उद्देश्य के भी विपरीत हैं। हिज्ब-उत-तहरीर की वकालत के सबसे चिंताजनक पहलुओं में से एक मुस्लिम युवाओं पर इसका प्रभाव है, जो अक्सर अपने कार्यों के परिणामों को पूरी तरह से समझे बिना काल्पनिक इस्लामिक राज्य के वादे से बहक जाते हैं। हिज्ब-उत-तहरीर की विचारधारा से प्रभावित कई युवा मुस्लिम ऐसी गतिविधियों में शामिल हो जाते हैं, जो भारतीय कानून के तहत अवैध हैं, जिसके कारण उन्हें गिरफ्तार किया जाता है और लंबे समय तक जेलों में रहना पड़ता है। ये युवा, समाज के योगदानकर्ता सदस्य बनने के बजाय घोषित अपराधी बन जाते हैं। इस्लामी शासन के तहत बेहतर जीवन के हिज्ब-उत-तहरीर के वादे खोखले हैं, क्योंकि वे युवाओं को ऐसे रास्तों पर धकेलते हैं, जो उन्हें अपराधी बना देता है।

मुस्लिम युवाओं को एहसास कराने की जरूरत है कि इस्लाम सामाजिक शांति को बाधित करने वाले कार्यों की वकालत नहीं करता है और न्यूज़ एजेंसी विरोध या संवैधानिक व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का आह्वान उन्हें गुमराह कर रहा है। मौजूदा लोकतांत्रिक ढांचे के भीतर सामाजिक आर्थिक विकास, शिक्षा और राजनीतिक भागीदारी की ज्यादा जरूरत है, बजाए इसके कि एक अप्राप्य और विभाजनकारी लक्ष्य के लिए फालतू का प्रयास किया जाएं, जो भारतीय कानून और इस्लामी सिद्धांतों दोनों के विपरीत हैं। इस मामले में यह जरूरी है कि मुस्लिम विद्वान, नेता और सामुदायिक संगठन हिज्ब-उत-तहरीर जैसे संगठनों द्वारा बताए गए आख्यानों का खंडन करे, जो न केवल अवैध हैं बल्कि धार्मिक रूप से भी गलत हैं। इस्लामिक शिक्षाएं मुसलमानों को अपने समाज में न्यायपूर्ण और सक्रिय भागीदार बनने, कानून के दायरे में अच्छाई को बढ़ावा देने और नुकसान को रोकने के लिए प्रोत्साहित करती हैं।

विभाजनकारी विचारधाराओं का शिकार होने के बजाए मुस्लिम समुदाय को भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के साथ रचनात्मक जुड़ाव पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। इसमें मतदान, राजनीतिक भागीदारी और समान अधिकारों की वकालत शामिल है। विद्रोह या कट्टरपंथ के विनाशकारी परिणामों के बिना समुदाय का उत्थान हो सकता है। मुस्लिम युवाओं को यह समझना चाहिए कि सच्चा इस्लामी शासन न्याय, व्यवस्था और शांति पर आरूढ़ होता है। ये ऐसे मूल्य हैं जिन्हें भारत के धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के भीतर बरकरार रखा गया है। उथल-पुथल के इस दौर में कट्टरपंथी आह्वानों को अस्वीकार कर मुसलमान एक ऐसे भविष्य की दिशा में काम कर सकते हैं, जहां वे अपने विश्वास या अपनी स्वतंत्रता से समझौता किए बिना समाज में सकारात्मक योगदान दे सकें।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)

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न्यूज़ एजेंसी/ संजीव पाश


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