डॉ. प्रभात ओझा
शीर्षक में दिया सुझाव प्रेरक लग सकता है। देशभक्ति के ज्वर में यह भी क्यों न हो! श्राद्ध और पितरों के तर्पण के मामले में लोग पहले से अधिक जानकार हो रहे हैं। इस कार्य में व्यापकता आई है। परंपराएं बताती हैं कि जिनके वशंज नहीं हों, ऐसे लोगों का तर्पण उनके जानने वाले कर सकते हैं। जिनके निधन की तिथि पता न हो, उनका तर्पण अमावस्या के दिन करने का विधान है। इस बार अमावस्या 02 अक्टूबर को है। संयोग ही है कि यह महात्मा गांधी और प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी एवं पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री की जयंती है। संभव है कि गांधी-शास्त्री के परिजन अपने पितरों का तर्पण करते हों। हम भी करें, तो हर्ज नहीं। फिर यह सुझाव तो ऐसे सभी सेनानियों और सीमाओं पर बलिदान देने वालों के लिए है।
महाभारत के तेरहवें अध्याय में जरत्कारु ऋषि का संदर्भ आता है। संन्यासी जरत्कारु को पेड़ से लटकती आत्माएं दिखीं। पूछने पर उन्होंने बताया कि उनके कुल में एक ही व्यक्ति बचा है और वह जरात्कारु है। वह तर्पण करे तो आत्माओं को शांति मिले। इस पर ऋषि पुनः गृहस्थ हुए और उन्होंने पितरों का तर्पण सम्पन्न किया। कहने का आशय यह कि जिनके वंशज किसी कारण श्राद्ध नहीं कर सके अथवा जिन्होंने देश-समाज के लिए अविवाहित रहते अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया, उनका तर्पण कौन करे। परंपराएं ही बताती हैं कि श्राद्ध स्थलों पर उन आत्माओं का भी तर्पण किया जाता है, जो आपसे किसी भी तरह जुड़े रहे हों। ऐसे लोग आपके आसपास के अथवा आपके अनुचर भी हो सकते हैं। यहां तक कि पालतू पशुओं तक के तर्पण का विधान है। यहीं रुककर सोचिए, जिन्होंने देश-समाज के लिए अपना बलिदान किया, उनका तर्पण हम क्यों न करें। आखिर देश के लिए समर्पित हर व्यक्ति हमारा ही तो है।
एक तर्क आड़े आता है कि क्या किसी भी तरह का तर्पण उन लोगों तक पहुंचता है, जिनके लिए यह किया जाता है। यहीं पर ‘श्राद्ध’ शब्द से संतुष्टि मिलती है। हमारे यहां परंपराओं का विरोध फैशन-सा हो गया है। यहां कुछ तथ्य ध्यान में लाना चाहिए। क्या जो लोग कथित रुढ़ियों से तंग आकर धर्म परिवर्तन करते हैं, नयी जगह जाकर वहां की परंपरा का पालन नहीं करते! किसी भी पश्चिमी देश का उदाहरण लें। क्या किसी के चित्र के सामने फूलों का गुच्छा रखना उसकी आत्मा के प्रति श्रद्धा नहीं है।
इस पुनीत कार्य को पूरी तरह समझना तभी सम्भव हो पाता है, जब हम इसके उद्देश्य पर ध्यान दें। एक मनःस्थिति में यह लग सकता है कि इस तरह के कर्मकांड निराधार हैं। उसी तरह जैसे श्राद्ध के नाम पर फिजूलखर्ची। आमतौर पर उधार लेकर भी शादी-ब्याह की भव्यता के समाचार मिलते रहते हैं। जिन्होंने अपने माता-पिता को परेशानियों में भी अपनी संतानों के विवाह में खर्च करते देखा है, वे भला क्या करें। ऐसे माता-पिता के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का मामला हो तो वे पीछे कैसे रहें। फिर भी यह सवाल काफी हद तक सही भी है कि कर्ज लेकर पितरों के तर्पण से क्या पितृगण प्रसन्न होंगे? जवाब भी परंपराओं में ही है। जरूरी नहीं कि आप तर्पण के लिए विशेष स्थानों पर ही जाएं। पास के जलाशय अथवा वह भी दूर होने पर घरों में बैठ कर भी यह सम्पन्न किया जा सकता है। श्रद्धा से ही श्राद्ध है, फिर श्रद्धा कहीं से भी व्यक्त करें! ऐसी श्रद्धा देशभक्तों के लिए भी हो!
(लेखक न्यूज़ एजेंसीसे जुड़े रहे हैं।)
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न्यूज़ एजेंसी/ संजीव पाश
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